संस्कृति

श्राद्ध पक्ष की इंदिरा एकादशी पर इस विधि से करें पूजा, मिलेगा पूर्वजों का आशीर्वाद...

18 सितंबर से अश्विन माह की शुरुआत हो चुकी है, जो 17 अक्टूबर 2024 को समाप्त होगा। आश्विन माह के कृष्ण पक्ष के 16 दिन पूर्वजों के मान-सम्मान को समर्पित है। इस दौरान पितरों की आत्म शांति के लिए पिंड़दान, तर्पण व श्राद्ध कर्म किए जाते हैं। इससे पूर्वजों का आशीर्वाद वंशों पर बना रहता है। इस अवधि में एकादशी व्रत भी रखा जाता है, जो पितृ की पूजा के लिए बेहद शुभ माना जाता है।

पंचांग के अनुसार अश्विन मास में कृष्ण पक्ष की एकादशी को इंदिरा एकादशी के नाम से जाना जाता है। इस साल 28 सितंबर को इंदिरा एकादशी व्रत रखा जाएगा। इस दिन सिद्ध योग का निर्माण हो रहा है, जो रात 11 बजकर 50 मिनट तक रहेगा। इस दिन उपवास रखने से जातक को मोक्ष की प्राप्ति होती हैं। साथ ही समस्त समस्याओं का निवारण होता है। ये एकादशी पितृपक्ष के बीच में पड़ती है, इसलिए इस दिन श्राद्ध के नियमों का पालन भी किया जाएगा। ऐसे में आइए इस दिन की पूजा विधि के बारे में जानते हैं।

इंदिरा एकादशी पूजा विधि

इंदिरा एकादशी पर सुबह ही स्नान कर लें, और साफ वस्त्रों को धारण करें।

फिर मन में व्रत का संकल्प लें और अपने पितरों को भी याद करें।

इस दौरान पूजा करने के लिए सबसे पहले एक चौकी लगाएं।

चौकी पर विष्णु जी की मूर्ति या तस्वीर को स्थापित करें, और घी का दीपक जलाएं।

भगवान विष्णु को पीला रंग अति प्रिय है, इसलिए उन्हें इस रंग के फूल और मिठाई अर्पित करें।

इसके बाद सभी अर्पित करने वाली साम्रगियों को भी चढ़ा दें।

फिर इंदिरा एकादशी व्रत की कथा सुनें और विष्णु जी की आरती करें।

इसके बाद एक दीपक अपने पितरों के समक्ष भी जलाएं और अपनी गलतियों की क्षमा मांगे।

अब आप जरूरतमंदों को दान करें। मान्यता है कि दान से पूर्वजों की आत्मा को शांति और व्रत का संपूर्ण फल मिलता है।

इंदिरा एकादशी मंत्र जाप

मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं जनार्दन। यत्पूजितं मया देव परिपूर्ण तदस्तु मे॥

ॐ श्री विष्णवे नमः। क्षमा याचनाम् समर्पयामि॥

इंदिरा एकादशी की पौराणिक एवं प्रामाणिक व्रत कथा-

इस व्रत की कथा के अनुसार प्राचीन काल में सतयुग के समय में महिष्मति नाम की एक नगरी में इंद्रसेन नाम का एक प्रतापी राजा धर्मपूर्वक अपनी प्रजा का पालन करते हुए शासन करता था। वह राजा पुत्र, पौत्र और धन आदि से संपन्न और विष्णु का परम भक्त था। एक दिन जब राजा सुखपूर्वक अपनी सभा में बैठा था तो आकाश मार्ग से महर्षि नारद उतरकर उसकी सभा में आए। राजा उन्हें देखते ही हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और विधिपूर्वक आसन व अर्घ्य दिया।

सुख से बैठकर मुनि ने राजा से पूछा कि हे राजन! आपके सातों अंग कुशलपूर्वक तो हैं? तुम्हारी बुद्धि धर्म में और तुम्हारा मन विष्णु भक्ति में तो रहता है? देवर्षि नारद की ऐसी बातें सुनकर राजा ने कहा- हे महर्षि! आपकी कृपा से मेरे राज्य में सब कुशल है तथा मेरे यहां यज्ञ कर्मादि सुकृत हो रहे हैं। आप कृपा करके अपने आगमन का कारण कहिए। तब ऋषि कहने लगे कि हे राजन! आप आश्चर्य देने वाले मेरे वचनों को सुनो।

मैं एक समय ब्रह्मलोक से यमलोक को गया, वहां श्रद्धापूर्वक यमराज से पूजित होकर मैंने धर्मशील और सत्यवान धर्मराज की प्रशंसा की। उसी यमराज की सभा में महान ज्ञानी और धर्मात्मा तुम्हारे पिता को एकादशी का व्रत भंग होने के कारण देखा। उन्होंने संदेशा दिया सो मैं तुम्हें कहता हूं। उन्होंने कहा कि पूर्व जन्म में कोई विघ्न हो जाने के कारण मैं यमराज के निकट रह रहा हूं, सो हे पुत्र यदि तुम आश्विन कृष्ण इंदिरा एकादशी का व्रत मेरे निमित्त करो तो मुझे स्वर्ग की प्राप्ति हो सकती है।

इतना सुनकर राजा कहने लगा कि- हे महर्षि आप इस व्रत की विधि मुझसे कहिए। नारदजी कहने लगे- आश्विन माह की कृष्ण पक्ष की दशमी के दिन प्रात:काल श्रद्धापूर्वक स्नानादि से निवृत्त होकर पुन: दोपहर को नदी आदि में जाकर स्नान करें। फिर श्रद्धापूर्वक पितरों का श्राद्ध करें और एक बार भोजन करें। प्रात:काल होने पर एकादशी के दिन दातून आदि करके स्नान करें, फिर व्रत के नियमों को भक्तिपूर्वक ग्रहण करते हुए प्रतिज्ञा करें कि ‘मैं आज संपूर्ण भोगों को त्याग कर निराहार एकादशी का व्रत करूंगा।

हे अच्युत! हे पुंडरीकाक्ष! मैं आपकी शरण हूं, आप मेरी रक्षा कीजिए, इस प्रकार नियमपूर्वक शालिग्राम की मूर्ति के आगे विधिपूर्वक श्राद्ध करके योग्य ब्राह्मणों को फलाहार का भोजन कराएं और दक्षिणा दें। पितरों के श्राद्ध से जो बच जाए उसको सूंघकर गौ को दें तथा धूप-दीप, गंध, पुष्प, नैवेद्य आदि सब सामग्री से ऋषिकेश भगवान का पूजन करें।

रात में भगवान के निकट जागरण करें। इसके पश्चात द्वादशी के दिन प्रात:काल होने पर भगवान का पूजन करके ब्राह्मणों को भोजन कराएं। भाई-बंधुओं, स्त्री और पुत्र सहित आप भी मौन होकर भोजन करें। नारद जी कहने लगे कि, हे राजन! इस विधि से यदि तुम आलस्य रहित होकर इस एकादशी का व्रत करोगे तो तुम्हारे पिता अवश्य ही स्वर्गलोक को जाएंगे। इतना कहकर नारदजी अंतर्ध्यान हो गए।

नारद जी के कथनानुसार राजा द्वारा अपने बांधवों तथा दासों सहित व्रत करने से आकाश से पुष्पवर्षा हुई और उस राजा का पिता गरुड़ पर चढ़कर विष्णु लोक को गया। राजा इंद्रसेन भी एकादशी के व्रत के प्रभाव से निष्कंटक राज्य करके अंत में अपने पुत्र को सिंहासन पर बैठाकर स्वर्ग लोक को गया।

हे युधिष्ठिर! यह इंदिरा एकादशी के व्रत का माहात्म्य मैंने तुमसे कहा। इसके पढ़ने और सुनने से मनुष्य सब पापों से छूट जाते हैं और सब प्रकार के भोगों को भोग कर बैकुंठ को प्राप्त होते हैं। इतना ही नहीं इस व्रत से पितृ दोष दूर होता है तथा पितृ दोष से भी मुक्ति मिलती है।

भगवान विष्णु की आरती

ॐ जय जगदीश हरे, स्वामी! जय जगदीश हरे।

भक्तजनों के संकट क्षण में दूर करे॥

जो ध्यावै फल पावै, दुख बिनसे मन का।

सुख-संपत्ति घर आवै, कष्ट मिटे तन का॥ ॐ जय...॥

मात-पिता तुम मेरे, शरण गहूं किसकी।

तुम बिनु और न दूजा, आस करूं जिसकी॥ ॐ जय...॥

तुम पूरन परमात्मा, तुम अंतरयामी॥

पारब्रह्म परेमश्वर, तुम सबके स्वामी॥ ॐ जय...॥

तुम करुणा के सागर तुम पालनकर्ता।

मैं मूरख खल कामी, कृपा करो भर्ता॥ ॐ जय...॥

तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति।

किस विधि मिलूं दयामय! तुमको मैं कुमति॥ ॐ जय...॥

दीनबंधु दुखहर्ता, तुम ठाकुर मेरे।

अपने हाथ उठाओ, द्वार पड़ा तेरे॥ ॐ जय...॥

विषय विकार मिटाओ, पाप हरो देवा।

श्रद्धा-भक्ति बढ़ाओ, संतन की सेवा॥ ॐ जय...॥

तन-मन-धन और संपत्ति, सब कुछ है तेरा।

तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा॥ ॐ जय...॥

जगदीश्वरजी की आरती जो कोई नर गावे।

 

कहत शिवानंद स्वामी, मनवांछित फल पावे॥ ॐ जय...॥

 

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