छत्तीसगढ़ इतिहास

छत्तीसगढ़ का खास: बेजोड़ मोहरिया पंचराम देवदास

 स्मृतिशेष :24दिसम्बर विशेष 

हमारे छत्तीसगढ़ की  माटी ,पर्व,गीत संगीत में लोकवाद्य मोहरी रचा बसा है। छत्तीसगढ़ के गांड़ा समाज का यह खास वाद्य यंत्र हे।अनादि काल से मोहरी,गुदुम, दमऊ,दफड़ा और निसान नामक वाद्यों का चलन छत्तीसगढ़ में है। इन्हें सामूहिक रूप से गांड़ा बाजा कहा जाता है। छत्तीसगढ़ के गांड़ा समाज के जीविकोपार्जन का बड़ा सहारा रहा है।आज भी गांव गंवई में विवाहोत्सव,दिवाली पर तथा विशिष्ट जनों के आगमन पर  इसे बजाते  स्वागत किया जाता है। छत्तीसगढ़ के इन लोकवाद्यों में जोरदार मोहरिया रहे  हैं पंचराम देवदास।मोहरी बजाने में माहिर पंचराम का निधन वर्ष 2017 में 24 दिसम्बर को हुआ था।वर्ष 1950 में 14 अगस्त के दिन इनका जन्म राजनादगांव के निकट आमगांव में हुआ। इन्हें  इनके पिताश्री जीवन लाल और मां फूल बाई के दुलार के साथ ही मोहरी का सानिध्य भी मिला।
         पंचराम के मोहरी वादन से छत्तीसगढ़ राज्य उत्सव का अगाज होता था। छत्तीसगढ़ में मेला-मड़ई के साथ ही  दिल्ली,मुम्बई,इलाहाबाद- उज्जैन महाकुंभ, अंतरराष्ट्रीय शिल्प महोत्सव सूरजकुंड हरियाणा,जमेशदपुर महोत्सव,अंतरराज्यीय संस्कृति महोत्सव भुनेश्वर,जैसे अनेक बहुप्रतिष्ठित संस्कृति जगार मेला में पंचराम की मोहरी की धुन श्रोताओं दर्शकों के कान में शहद  जैसी मिठास घोलती रही है। छत्तीसगढ़ का बहुप्रतिष्ठित सम्मान  रामचंद्र देशमुख बहुमत सम्मान सहित अनेक पुरस्कार,सम्मान से वे अलंकृत हुए हैं।
  आज उनकी  पुण्यतिथि पर स्मरण करते हुए मेरी कलम लिख रही है वर्ष 1999 की बातें।उस जमाने में लोकगीतों की रिकार्डिंग,कैसेट हेतु  छत्तीसगढ़ के कलाकार  जबलपुर,कटक के स्टुडियो ही जाते थे।
       इसी तरह गीतों की रिकॉर्डिंग हेतु सुप्रसिद्ध लोकगायिका कविता-विवेक वासनिक अपने दल के साथ मेरे घर जबलपुर में ही ठहरे थे, चूंकि मैं भी अनेक छत्तीसगढ़ी लोकमंचों में  इनके साथ एक्टिंग एंकरिंग करता था। मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल जबलपुर में जनसंपर्क अधिकारी की नियुक्ति उपरांत लोकमंचों से कुछ दूरियां बढ़ीं पर रिश्तों में प्रगाढ़ता बनी रही।
            मेरे घर पर ही कविता- विवेक के साथ लगातार एक सप्ताह तक  संगीतकार खुमान साव,गिरिजा सिन्हा(बेंजो),पंचराम देवदास (मोहरी),राकेश साहू (तबला), प्रभु सिन्हा, महादेव हिरवानी,भगवती साहू  रूके और  'धरोहर -धनी- धुन' आडियो कैसेट के गीतों की रिकार्डिंग कार्य को पूरा करवाए।
            रिकार्डेड गीतों में बजे पंचराम देवदास की मोहरी देशी घी की तरह   पृथक पहचान बना गई।  पंचराम की मोहरी का मैं  मुरीद हो गया था। एक दिन घर की छत पर धूप सेंकते पंचराम जी से मैंने  पूछा-लोक वाद्य मोहरी से आपकी  मित्रता का किस्सा  क्या है जी?मेरा सवाल सुनकर वे हाथ पैर  में सरसों तेल लगाते हुए पंचराम बोले- महराज जी,मोहरी साथ हमारी मितानी खानदानी है। दरअसल  हमारे गांड़ा समाज के ए पुरखौती बाजा है‌।इसे बजाने की कला जन्मजात मेरे लहू में समाहित है। 
       बात आगे बढ़ाते मैने  फिर सवाल किया-आपके बालपन की सखी मोहरी की बनावट कैसे, किससे  होती है?इसके जवाब में अपने  निकट रखे मोहरी को द दिखाते हुए वे बोल - ये देखिए,मोहरी एक हाथ लम्बी होती है। शास्त्रीय वादकों का मानना है इस प्राचीन लोकवाद्य का ही परिष्कृत रूप शहनाई है। मोहरी  की बनावट को तीन भागों में बांट सकते हैं।पोंगा जैसे बनावट इसके अग्रभाग को 'फेर' कहते हैं।आजकल यह लकड़ी के अलावा कांसा,पीतल,स्टील से बनने लगा है।फेर के पीछे अर्थात मोहरी के मध्य  भाग को 'डांडी' कहते हैं। डांडी को ठोस बांस से बनाते हैं,जिसमें बासुरी की तरह सात आठ छिद्र होते हैं।मोहरी बजाते समय इन्हीं छिद्रों पर उंगलियां सुरों  की उत्पत्ति की जाती है। डांडी से जुड़ा मोहरी का सबसे पिछला भाग 'सोंसी' कहलाता है।सोंसी के साथ ही नारियल खोटली से निर्मित गोल ढक्कन  की तरह 'फिलफिली' जुड़ी होती है,जो कि मोहरिया के फूंकते समय मुंह से निकलती हवा को सीधे सोंसी में भेजने में  सहायक होती है।
         मोहरी से निकलती  कोयली जैसी मीठी स्पष्ट आवाज का राज पूछने पर पंचराम जी बताए- मोहरी से मीठे सुर निकालने में ताल पेंड़ की पत्ती की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।ताड़पत्ते के छोटे से टुकड़े को मोहरी की सोंसी में फंसाया जाता है।मोहरिया लोग एक छोटे डिब्बे में ताड़पत्र के टुकड़ों को सुरक्षित  रखते हैं।इसे मोहरी में फंसाने के पहले पानी में  में भिगोकर रखा जाता है।जिससे कोमल होकर ताड़पत्र टूटता नहीं और मधुर आवाज भी निकालता है।
   छत्तीसगढ़ी लोक संगीत में मोहरी की उपादेयता पूछने पर पंचराम बोले -   सिंदूर बिना सुहागिन जैसी स्थिति मोहरी बिना लोकगीत संगीत की होगी।मेरी मोहरी के सुर में सजे ऐसे गीतों का मजा  आकाशवाणी,दूरदर्शन  अऊ छत्तीसगढ़ की नामी संस्था चंदैनी गोंदा,सोनहा बिहान,लोकनाट्य कारी, अनुराग धारा के गीतों में  ले सकते हैं।
    तभी मेरी श्रीमती जी  गरम गरम चिला और धनिया -मिरची-टमाटर  की महकती हुई चटनी लेकर आ गईं।उनका स्वाद लेते मैंने सवाल किया-पंचराम भईया,
छत्तीसगढ़ के लुप्त होते लोकवाद्यों में मोहरी की भी गिनती होने लगी है।मोहरी को बचाने हेतु नये जमाने के मोहरियों के लिए आपकी भूमिका  क्या है?
      इस सवाल के जवाब में पंचराम बोले-सौ फीसदी चिंता की बात उठाए हैं महराज जी।आज के बच्चे असल को छोंड़कर नकल के पीछे भागते दिख रहे हैं। नई पीढ़ी परम्पराओं पुस्तैनी कलाओं से जुड़े इस मंशा को लिए हुए मैं नये बच्चों को फोकट में मोहरी बजाना सिखाता हूं।सौ से भी ज्यादा मोहरी बना कर बांट चुका हूं।नये मोहरियों  से कहता हूं मोहरी एक फूंकनी वाद्य है।इसे बजाने के लिए दमदार सांस जरूरी है,अतः बीड़ी चोंगी सिगरेट से दूर रहें।लगे दम तो मिटे गम का वहम मन में न पालें।बात चीत करते करते बारा बज गए थे।वे लोग खा पीकर रिकार्डिंग हेतु स्टूडियो चले गए।
    उस घड़ी को याद करते हुएआज भी कहीं मोहरी सुनता हूं तो देवदास जी की मोहरी में डूबा मन  कहता है-नाम गुम जाएगा,चेहरा ए बदल जाएगा, मेरी आवाज ही मेरी पहचान है, गर याद रहे।
विजय मिश्रा 'अमित'
वरिष्ठ लोक रंगकर्मी
एम 8 सेक्टर 2,अग्रोहा सोसायटी,सुंदर नगर रायपुर (छग)492013
9893123310

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