संस्कृति

होली में रोती मुर्गी को हंसाएं

लघुकथा

होलिका दहन की तैयारी में 
 भारी उत्साह से झूमते गाते लोग जूटे हुए थे।ऐसे समय में एक होटल में मुर्गी -मुर्गे के बीच बातचीत हो रही थी।
        काले मुर्गे ने अपनी  प्रियतमा मुर्गी के गाल पर गुलाल मलते हुए कहा- जानू जी कल होली है। लोग रंग -भंग और चंग में डूबे हुए हैं,पर तुम्हारा चेहरा  भारी धूप में झूलसे पौधे के पत्ते की तरह कुम्हलाया हुआ मायूस दिख रहा है।भला कौन सी चिंता की बात हो गई है,जो लकड़ी के कीड़े घून की तरह तुम्हें भीतर ही भीतर खाए जा रही है?
         मुर्गे के सवाल को सुनकर मुर्ग़ी लम्बी सांसे छोड़ते हुए बोली -तुम तो जानते हो जी। होली की   खुशी में लोग चिकन बिरयानी खाते हैं ।आज लोग आएंगे। हमें खरीदकर  ले जाएंगे ‌और काट पीट कर बिरयानी बना कर चट कर जायेंगे। हम दोनों सदा सदा के लिए अलग हो जाएंगे।
      मुर्ग़ी की बातें सुनकर  मुर्गे की आंख से धार धार आंसू बहने लगे।अपने आंसू  पोंछते बोला- जानू इस ओर तो मेरा ध्यान ही नहीं गया था।पर हां रंग पर्व में अलग  हो जाने की उपजी पीड़ा से मेरे मन में भी विचार आ रहा है क्या रंग पर्व होली  मांस- मंदिरा का ही पर्व है?रंगों का पर्व क्या दंगों पर्व बन गया है?तभी तो रंग  पर्व पर हुरियारों से कहीं ज्यादा लाठी- बंदूक धारी पुलिस दिखने लगे हैं।
          मुर्गे की बात को आगे बढ़ते हुए मुर्गी बोली- रो मत जानू ,हमारे बुजुर्ग कहते हैं कि जिसने भी दुनिया को जगाने की कोशिश की है वह हमेशा मारा गया है। बांग देकर मनुष्यों को प्रातः जगाना तो हमारा जन्मजात काम रहा है। मनुष्यों की सेवा में अपनी जिन्दगी होम कर देने के लिए ही हमारा जन्म हुआ है ,पर जागते हुए सोने की नाटक करने वाला नौटंकीबाज आदमी हमारे दर्द को क्या समझेगा।
        मुर्ग़ी की बातें सुनकर हां में हां मिलाते हुए मुर्गे ने कहा -सोलह फीसदी सही कह रही हो जानू,पर मेरा भी एक सवाल है, क्या होली का त्योहार जीव- जंतुओं की हत्या का संदेश ले के आता है? मुर्गे का सवाल सुनकर मुर्ग़ी एक शब्द नहीं बोल सकी और मुर्गे से लिपटते कलप कलप कर रो पड़ी।
 

 

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