संस्कृति

परिचर्चा : होली जो हो ली पर भूले नहीं भूली

होली पर्व फागुन माह का सिरमौर पर्व है। फागुन माह में चारों ओर हलचल मचा देने वाला पर्व भाई चारा का पाठ भी पढ़ाता है।वर्ष के पूरे ग्यारह माह की भागम-भाग भरी जिंदगी के बाद यह पर्व आनंद सागर में हिलोरे लेने का सुख देता।होली पर्व पर हंसी ठिठोली के बीच हुई कुछ बातें अविस्मरणीय रह जाती हैं। जीवन की वो होली जो हो ली पर भूली नहीं गई को हमारे रचनाधर्मियों ने परिचर्चा में ऐसे व्यक्त किया।
होली में खाई अर्धांगिनी की बोली की गोली -रामेश्वर वैष्णव 
वरिष्ठ  साहित्यकार रामेश्वर वैष्णव ने बताया- विजय भाई,बात 1984 की है।मैं पाण्डुका गरियाबंद में उपडाकपाल था। बचपन से ही रंग खेलने,हुल्लड़ करने का कोई शौक नहीं था।हां होली में कवि सम्मेलन पाकर गदगद हो जाता था।
ऐसे ही एक बार होली की पूर्व संध्या भिलाई कवि सम्मेलन में शामिल हुआ। सुबह तक चले सम्मेलन के बाद तगड़ा पारिश्रमिक वाला लिफाफा लेकर रायपुर बस स्टैंड पहुंच गया।
          बच्चों के लिए रंग मिठाई की खरीद करके जब पांडुका जाने बस ढूंढ़ा तब पता चला धूरेड़ी के दिन बस चलती ही नहीं है।मेरा माथा ठनक गया।एक घंटे बाद ट्रक वाले से लिप्ट लेकर नवापारा तक पहुंच गया।झोले में बच्चों की खुशियां थी और मेरे  घर पांडुका की दूरी मात्र बाईस किलोमीटर शेष थी।इच्छा हुई पैदल निकल पड़ूं,पर रात भर जागे तन मन ने साथ नहीं दिया।
    शाम हो गई पर कोई जुगाड़ नहीं हुआ।तभी मेरे कवि मित्र पोस्ट मास्टर राधेश्याम सिंदूरिया प्रगट हुए और मेरी दुर्दशा देखकर   डाक भवन ले गए।नहाते खाते तक शाम का धुंधलका अंधेरे में परिणित हो गया। वहीं रात्रि विश्राम मेरी मजबूरी बन गई।चिंता थकान के मारे रात भर नींद नहीं आई।सबेरे उठकर पहली बस से घर भागा।  घर पहुंचा तो बच्चे तो बेहद खुश हुए मगर श्रीमती जी ने धुंआधार कडुए प्रवचन का जबरदस्त स्वाद चखाया। होली में गायब रहने की सजा अर्धांगिनी की बोली की गोली के रूप में मिली।
महंगे गहने न पहनें होली में-डॉ शैल चंद्रा
परिचर्चा में भागीदारी देते हुए साहित्यकार डॉ शैल चंद्रा बोली--अमित जी, बात तब की है जब मैं दसवीं में पढ़ती थी। मोहल्ले की सारी लड़कियाँ बाड़े में होली खेलने जमा होती थीं। मैं राधा बनती थी और मेरी सहेली मधु कृष्ण बनती थी। हम लोग खूब मस्ती और डांस करते थे।  
       हर बार की तरह मैं कान में सोने की बड़ी बड़ी बालियां पहने राधा का रूप धरे होली खेलने में मस्त थी। तभी मेरी एक सहेली ने कहा" शैल तेरे एक कान की बाली कहाँ है?" मेरी बाली कहीं गुम हो गई थी।ढूंढने पर भी नहीं मिली।डांट-मार के डर से मेरा जी धक- धक करने  लगा।मैं रोने लगी।     
          तभी अम्मा फटकार लगाते हुए बोली- शैल तेरी मति मारी गई थी क्या?कीमती गहने पहनकर कौन होली खेलता है? होली का मजा किरकिरा हो गया पर उस दिन सीख मिली कि महंगे आभूषण होली के दिन नहीं पहनना चाहिए।
       सबसे सस्ता त्योहार है होली -विवेक वासनिक
  आनंद उल्लास से सराबोर कर देने वाला सबसे सस्ता त्योहार होली है।एक चुटकी
 गुलाल के टीका मात्र से यह बड़े बड़े बैर भाव को मिटा कर मित्रता में बदल देने की ताकत रखता है। यह कहते हुए राजगामी सम्पदा के अध्यक्ष वरिष्ठ संगीतकार विवेक वासनिक ने बताया -मुझे याद है विजय भाई, हमारे गांव में बसंत पंचमी के दिन अंडा पेड़ की एक शाखा को होली स्थल पर गाड़ा जाता था। सुखी लकड़ियां और कंडो की होली जलाई जाती थी।पर अब जो सामाजिक एवं पर्यावरण प्रदूषण का खेल चल रहा है वह इस सुंदर त्यौहार को कलंकित कर रहा है। नशापान करके मारपीट करना,बेढंगे वेशभूषा में भौंडा नाच गाना होली की पहचान बनती जा रही है।
            इसे रोकने के लिए गत वर्ष मोहल्ले के हुरियारों को समझाया तो वे जलती होली की तरह भभक उठे। मेरे ऊपर बाल्टी भर ठंडा पानी उंडेल कर बुरा न मानो होली है कहते हुए भाग गए।पानी की बरबादी,हरे वृक्षों की कटाई से सस्ता पर्व होली मंहगा पर्व बनते जा रहा है।अतः कहना चाहूंगा ‘‘हरे पेड़ कटने न दे,जलस्तर घटने न दे,भाईचारे को बंटने न दे, होली पर यही पैगाम है।
जीजा की बाड़ी का घेरा चोर साला -डॉ पी सी लाल यादव
        होली की यादों का पिटारा खोलते हुए वरिष्ठ साहित्यकार डॉ पी.सी. लाल यादव ने बताया- विजय भाई,फागुन के आते ही मन बहकने लगता है। लाल टेसू की भांति दहकने लगता है। जब घिड़कता है नगाड़ा तो तन मन थिरकने लगता है।बसंत आकर प्रकृति में रंग भर देता है और फागुन जिन्दगी में उमंग भर देता है।
   बालपन में हम बड़ी शरारत किया करते थे।किसी के कंडे, बैलगाड़ी के डंडे को टिड्डी दल की भांति  होली के लिए उड़ा ले जाते थे।एक बार गांव के कन्हैया जीजा की बाड़ी में लगे लकड़ी के घेरे पर हमारी नजर लग गई,किंतु वे चौकीदारी में लगे रहते थे अतः हम कुछ नहीं कर पा रहे थे। 
         कन्हैया जीजा से मेरी अच्छी तालमेल थी। इसका फायदा उठाते हुए प्लान बनाकर मैं कन्हैया जीजा के पास खाना खाने के समय पहुंचा और बोला -खाना खाने नहीं गए जीजा? मेरा सवाल सुनकर भूख से तिल मिलाते हुए वे बोले-खाने जाऊंगा तो बाड़ी के लकड़ी खम्भे को छोकरे उखाड़ कर ले जाएंगे। खैर तुम आ गए हो तो मैं जल्दी ही खाकर आता हूं। तब तक तुम रखवारी करना।
      अंधा चाहे दो आंख की तरह मुझे मौका मिला तो मैंने कहा-हां हां,आप जाइए न।जीजा के जाते ही वानर सेना की तरह मेरे साथी बाड़ी के खम्भों को उखाड़ ले गए। उसे देखकर मन ही मन मैं पुलकित हो रहा था। तभी कन्हैया जीजा के आने की आहट पाकर मैं जोर-जोर से कराहने लगा-अरे बाप रे.. मार डाला सालों ने,हड्डी तोड़ दी।हे राम।जीजा करीब आए तो कराहते हुए मैंने बताया- आपके जाते ही बहुत से छोकरे आए।मेरी एक नहीं चली।वे खम्भे उखाड़कर ले गए। मेरी बातों पर कन्हैया जीजा को भरोसा हो गया।वे सिर पकड़कर बैठ गए। उनसे विदा लेकर जब मैं होली स्थल पर पहुंचा तो सारे साथी विजयी मुस्कान के साथ नाचने लगे।
      परिचर्चा में शामिल साथियों ने सार में यही संदेश दिया है कि होली पर्व छोटे बड़े,जात-पांत भूला कर एक हो जाने का संदेश  देता है। इसके सुंदर स्वरूप को बनाए हुए भाई चारे के सुख सागर डूबकी लगाते कहें-राधा का रंग और कान्हा की पिचकारी,प्रेम के रंग में डूबे दुनिया सारी, होली जात देखे न बोली,मुबारक हो सबको  होली ।   

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