सामान्य ज्ञान

कुंभ श्रद्धालुओं का नई दिल्ली स्टेशन पर हुआ हादसा

प्रचार का प्रभाव और पर्व विषेश में त्रिवेणी में डूबकी लगाने के उत्साह में मची भगदड़ में तीस लोगों के प्रयागराज के संगमत ट पर चले गए थे और अब नई दिल्ली रेलवे स्टेषन पर प्रयागराज विषेश रेल में बैठने की भगदड़ में 18 लोग मारे गए। इन दोनों हादसों में महिलाओं की संख्या अधिक रही है। ये घटनाएं इसलिए घटीं, क्योंकि सुविधाजनक यात्रा और प्रयागराज कुंभ में आस्था की डुबकी के आकर्शण ने देष ही नहीं दुनिया से सनातन हिंदुओं को बुला लिया। भारतीय ही नहीं अनेक पष्चिमी देषों के नागरिकों ने भी त्रिवेणी में डुबकी लगाकर आध्यात्मिक षांति का अनुभव किया। फलतः 50 करोड़ से भी ज्यादा लोग अब तक गंगा स्नान कर चुके है और करोड़ों इस आस में प्रयागराज की ओर बढ़ रहे हैं, कि उन्हें भी कुंभ में डुबकी का अवसर मिल जाए तो मोक्ष का मार्ग प्रषस्त हो जाए। 

उत्तरप्रदेष सरकार ने अपनी क्षमता से अधिक आवागमन के साधनों से लेकर अनेक तकनीकी प्रबंध किए हैं। लेकिन भीड़ के आगे सभी प्रबंध कमजोर साबित हो जाते हैं। कुछ ऐसा ही दुनिया के इस सबसे बड़े मेले में देखने में आ रहा है। बावजूद दिल्ली की घटना रेल प्रशासन की लापरवाही के संकेत देती है। जब दिल्ली से प्रयागराज जाने वाली रेलों के लिए 1 घंटे में 15 हजार टिकट बिक रहे थे, तब उसने रेलों की उपलब्धता से अधिक टिकट क्यों बेचे ? वे टिकट यात्रियों को प्लेटफार्म पर जाने ही क्यों दिया ? यदि रेल की क्षमता से अधिक यात्रियों को स्टेषन के भीतर नहीं घुसने दिया जाता तो षायद भगदड़ में निर्दोश श्रद्धालुओं को प्राण गंवाने नहीं पड़ते ? दरअसल हमारे यहां विभाग कोई सा भी हो, अंत में संपूर्ण जुम्मेबारी और जबावदेही तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों पर छोड़ दिया जाता है। जबकि ये खुद कोई निर्णय लेने में सक्षम नहीं होते हैं। वस्तुतः आस्था के अनियंत्रित आवेग में अनहोनी घट जाती है। देश के प्रशासनिक अमले ने इसी कुंभ में त्रिवेणी संगम में घटी घटना से भी कोई सबक लेते हुए सावधानियां नहीं बरती ?

 
 

भारत में पिछले डेढ़ दषक के दौरान मंदिरों और अन्य धार्मिक आयोजनों में उम्मीद से कई गुना ज्यादा भीड़ उमड़ रही ह्रै। जिसके चलते दर्षन-लाभ की जल्दबाजी व कुप्रबंधन से उपजने वाली भगदड़ व आगजनी का सिलसिला हर साल इस तरह के धार्मिक मेलों में देखने में आ रहा है। इसी प्रयाग के 2013 में संपन्न हुए कुंभ मेले में रेलवे स्टेषन पर बने पैदल पुल पर भगदड़ मचने से 42 लोगों की मौत हो गई थीं। 1954 में भी प्रयागराज के कुंभ में 3 फरवरी को मौनी अमावस्या पर भगदड़ मची और 800 लोग काल के गाल में समा गए। 1986 में हरिद्वार के कुंभ में वीआईपी दर्जे के लोगों को विषेश स्नान के लिए भीड़ रोक देने के कारण भगदड़ मची और 200 लोग मारे गए थे। 2003 के नासिक कुंभ में 39 और 2010 के हरिद्वार के कुंभ में षाही स्नान के दौरान भगदड़ मचने से 7 लोगों की मौतें हुई थीं। साफ है, प्रत्येक कुंभ में जानलेवा घटनाएं घटती रहने के बावजूद शासन-प्रशासन ने कोई सबक नहीं लिए। धर्म स्थल हमें इस बात के लिए प्रेरित करते हैं कि हम कम से कम शालीनता और आत्मानुशासन का परिचय दें। किंतु इस बात की परवाह आयोजकों और प्रशासनिक अधिकारियों को नहीं होती, अतएव उनकी जो सजगता घटना के पूर्व सामने आनी चाहिए, वह अक्सर देखने में नहीं आती ? लिहाजा आजादी के बाद से ही राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र उस अनियंत्रित स्थिति को काबू करने की कोशिश में लगा रहता है, जिसे वह समय पर नियंत्रित करने की कोशिश करता तो हालात कमोबेष बेकाबू ही नहीं हुए होते ? आयोजन को सफल बनाने में जुटे अधिकारी भीड़ के मनोविज्ञान का आकलन करने में चूकते दिखाई देते है।

 
 

इस कुंभ की तैयारियों के लिए कई हजार करोड़ की धनराषि खर्च की गई। जरूरत से ज्यादा प्रचार करके लोगों को कुंभ स्नान के लिए आमंत्रित किया गया। फलतः कौने-कौने से श्रद्धालुओं ने संगम में डुबकी लगाने का मन बना लिया। नतीजा यह निकला कि जिसे जो आवागमन का  साधन मिला प्रयागराज की ओर चल दिया। जनसैलाब इतनी बड़ी संख्या में उमड़ा कि परिवहन से लेकर प्रयाग में प्रबंधन के सभी साधन कम पड़ गए। करोड़ो की भीड़ को संभालने के लिए सात स्तरीय सुरक्षा प्रबंधों से लेकर जो भी आधुनिक तकनीकि उपाय किए गए थे, वे सब ध्वस्त हो गए। ऐसा मेले के विराट रूप में बदल जाने के कारण हुआ। वैसे भी हमारे धार्मिक-आध्यात्मिक आयोजन विराट रुप लेते जा रहे हैं।  कुंभ मेलों में तो विषेश पर्वों के अवसर पर एक साथ कई करोड़ लोग एक निष्चित समय के बीच स्नान करते हैं। ऐसे में भीड़ के अनुपात में यातायात और सुरक्षा के इंतजाम देखने में नहीं आते। जबकि षासन-प्रषासन के पास पिछले पर्वों के आंकड़े और अनुभव होते हैं। बावजूद लापरवाही और बद्इंतनीजामी सामने आना चकित करती है। दरअसल, कुंभ या अन्य मेलों में जितनी भीड़ पहुंचती है और उसके प्रबंधन के लिए जिस प्रबंध कौषल की जरुरत होती है, उसकी दूसरे देषों के लोग कल्पना भी नहीं कर सकते ? इसलिए हमारे यहां लगने वाले मेलों के प्रबंधन की सीख हम विदेशी साहित्य और प्रषिक्षण से नहीं ले सकते ? क्योंकि दुनिया के किसी अन्य देष में किसी एक दिन और विशेष मुहूत्र्त के समय लाखों-करोडों़ की भीड़ जुटने की उम्मीद ही नहीं की जाती ? बावजूद हमारे नौकरषाह भीड़ प्रबंधन का प्रषिक्षण, लेने खासतौर से योरुपीय देषों में जाते हैं। प्रबंधन के ऐसे प्रषिक्षण विदेषी सैर-सपाटे के बहाने हैं, इनका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं होता। ऐसे प्रबंधनों के पाठ हमें खुद अपने देषज ज्ञान और अनुभव से लिखने होंगे। इस बार तो केवल प्रयागराज में ही नहीं उत्तरप्रदेष की सीमा में प्रवेष करने वाली सभी सड़कों पर कई-कई दिन जाम लगे रहे। नतीजतन सीमाई प्रांतों के प्रषासन को भी सजग रहना पड़ा। 

 
 

 प्रषासन के साथ हमारे राजनेता, उद्योगपति, फिल्मी सितारे और आला अधिकारी भी धार्मिक लाभ लेने की होड़ में व्यवस्था को भंग करने का काम करते हैं। इनकी वीआईपी व्यवस्था और यज्ञकुण्ड अथवा मंदिरों में मूर्तिस्थल तक ही हर हाल में पहुंचने की रूढ़ मनोदषा, मौजूदा प्रबंधन को लाचार बनाने का काम करती है। नतीजतन भीड़ ठसाठस के हालात में आ जाती है। ऐसे में कोई महिला या बच्चा गिरकर अनजाने में भीड़ के पैरों तले रौंद दिया जाता है और भगदड़ मच जाती है। इस कुंभ में जहां केंद्रीय मंत्रीमंडल के मंत्री स्नान के लिए आते रहे, वहीं भाजपा षासित प्रदेष सरकारों के मुख्यमंत्री और मंत्रियों ने भी वीआईपी घेरे में श्रद्धालुओं को परे करके डुबकी लगाई। बड़े व्यापारी घरानों ने भी परिवार सहित वीआईपी स्नान किए। कांग्रेस व अन्य दलों के दिग्गज नेता भी वीआईपी डुबकी लगा रहे हैं।

 
 

दरअसल दर्षन-लाभ और पूजापाठ जैसे अनुश्ठान अषक्त और अपंग मनुश्य की वैषाखी हैं। जब इंसान सत्य और ईष्वर की खोज करते-करते थक जाता है और किसी परिणाम पर भी नहीं पहुंचता है तो वह पूजापाठों के प्रतीक गढ़कर उसी को सत्य या ईष्वर मानने लगता है। यह मनुश्य की स्वाभाविक कमजोरी है। यथार्थवाद से पलायन अंधविष्वास की जड़ता उत्पन्न करता है। भारतीय समाज में यह कमजोरी बहुत व्यापक और दीर्घकालीक रही है। जब चिंतन मनन की धारा सूख जाती है तो सत्य की खोज मूर्ति पूजा और मुहूत्र्त की षुभ घड़ियों में सिमट जाती है। जब अध्ययन के बाद मौलिक चिंतन का मन-मस्तिश्क में हृास हो गया तो मानव समुदाय भजन-र्कीतन में लग गया। यही हश्र हमारे पथ-प्रदर्षकों का हो गया है। नतीजतन पिछले कुछ समय से सबसे ज्यादा मौतें भगदड़ की घटनाओं और सड़क दुर्घटनाओं में उन श्रद्धालुओं की हो रही हैं, जो ईष्वर से खुषहाल जीवन की प्रार्थना करने धार्मिक यात्राओं पर जाते हैं।

 भीड़ बढ़ाने में सोषल मीडिया की भूमिका

धार्मिक स्थलों पर भीड़ बढ़ाने का काम सोषल मीडिया भी कर रहा है। प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया के साथ सोषल मीडिया भी टीआरपी के लालच में अहम् भूमिका निभाता नजर आ रहा है। इस कुंभ में हम देख रहे है कि नीली आंखों वाली लड़की और आईआईटिअन साधु के वीडियो एक तमाषे के रूप में कहीं ज्यादा दिखाए और देखे गए है। जबकि षंकराचार्यों से धर्म और आस्था के गूढ़ रहस्यों को ज्ञात करने की जरूरत थी ? परंतु हमारे यहां प्रत्येक छोटे बड़े मंदिर के दर्षन को चमात्कारिक लाभ से जोड़कर देष के भोले-भाले भक्तगणों से एक तरह का छल मीडिया कर रहा है। इस मीडिया के अस्तित्व में आने के बाद धर्म के क्षेत्र में कर्मकांड और पाखण्ड का आडंबर जितना बड़ा है, उतना पहले कभी देखने में नहीं आया। इसकी पृश्ठभूमि में बाजारवाद की भूमिका भी रहती है। हालांकि यही मीडिया पाखंड के सार्वजनिक खुलासे के बाद मूर्तिभंजक की भूमिका में भी खड़ा हो जाता है।

मीडिया का यही नाट्य रूपांतरण अलौकिक कलावाद, धार्मिक आस्था के बहाने व्यक्ति को निष्क्रिय व अंधविष्वासी बनाता है। यही भावना मानवीय मसलों को यथास्थिति में बनाए रखने का काम करती है और हम ईष्वरीय अथवा भाग्य आधारित अवधारणा को भाग्य का प्रतिफल व नियति का कारक मानने लग जाते हैं। दरअसल मीडिया, राजनेता और बुद्धिजीवियों का काम लोगों को जागरूक बनाने का है, लेकिन निजी लाभ का लालची मीडिया, लोगों को धर्मभीरू बना रहा है। राजनेता और धर्म की आंतरिक आध्यात्मिकता से अज्ञान बुद्धिजीवी भी धर्म के छद्म का शिकार होते दिखाई देते हैं। यही वजह है कि पिछले दो दशक के भीतर मंदिर हादसों में लगभग 5000 से भी ज्यादा भक्त मारे जा चुके हैं। बावजूद श्रद्धालु हैं कि दर्शन, आस्था, पूजा और भक्ति से यह अर्थ निकालने में लगे हैं कि इनको संपन्न करने से इस जन्म में किए पाप धुल जाएंगे, मोक्ष मिल जाएगा और परलोक भी सुधर जाएगा। गोया, पुनर्जन्म हुआ भी तो श्रेष्ठ वर्ण में होने के साथ आर्थिक रूप से समृद्ध व वैभवशाली होगा। परंतु इस तरह के खोखले दावों का दांव हर मेले में ताश के पत्तों की तरह बिखरता दिखाई दे रहा है। जाहिर है, धार्मिक दुर्घटनाओं से छुटकारा पाने की कोई उम्मीद निकट भविष्य में दिखाई नहीं दे रही है ?

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