सतयुग से दीपपर्व मनाने की परम्परा आरंभ हुई थी,वह सतत चली आ रही है। कार्तिक माह के पांच दिवसीय महापर्व में क्रमशः धनतेरस, नरक चतुर्दशी, दिवाली, गोवर्धन पूजा और भाईदूज का त्योहार शामिल है। इस पर्व के दौरान मिट्टी से निर्मित दिया जलाने की प्राचीनतम प्रथा प्रचलित है।कार्तिक अमावस्या की रात सर्वाधिक मात्रा में प्रज्जवलित मिट्टी का छोटा सा दिया मानवीय मूल्यों को बनाए रखने का बड़ा संदेश देता है।यह सर्वविदित है कि मिट्टी से निर्मित वस्तुओं का जन्मजात नाता मनुष्य से जुड़ा होता है।अत्याधुनिक युग आने के बावजूद मिट्टी से निर्मित सुराही के पानी का स्वाद मंहगे फ्रिज का ठंडा पानी नहीं दे पाता।
ग्रीष्म काल के आते ही जैसे मिट्टी से निर्मित मटके की मांग बढ़ जाती है। उसी तरह दीपावली पर्व में मिट्टी के दीये की पूछ परख बढ़ जाती है। इसके बिना दीपावली मनाने की कल्पना भी नहीं की जा सकती।विविध किस्म के रंग-बिरंगे बिजली चलित झालर और खूबसूरत आकार लिए मोमबत्ती बाजार में उपलब्ध हैं,पर मिट्टी के दीये के बिना इस पर्व की दशा बिन पानी की नदिया जैसी होगी।
बालपन की बातें याद आती हैं ,जब दशहरा दिवाली की छुट्टी होती थी तो एक दिन गंवाए बिना ननिहाल के लिए रवाना हो जाते थे। वहां घरों की साफ सफाई, लिपाई पुताई में हम जुट जाते थे।नानी जी मिट्टी के दिये खरीद कर उन्हें पानी में डूबा कर रख देती थीं। वे बताती थी कि दिया अधिक पानी सोख लेगा तो तेल कम सोखेगा।आज उनकी बातें ज्यादा अच्छे ढंग से समझ में आती हैं।
वे यह भी कहती थीं कि दूसरों के जीवन को प्रकाशित करने वाले दिया तले अंधेरा ही होता है,किन्तु इससे व्यथित हुए बिना वह अपने जीवन के उद्देश्य को पूरा करने में तल्लीन रहता है। परोपकार की सीख को संचारित करता हुआ दिया सतत दूसरों के लिए जलता है। इंसानों की तरह वह दूसरों से नहीं जलता है। मनुष्य के भीतर सब कुछ बटोर लेने की बढ़ती लिप्सा के बीच बटोरने के बजाय बांटने की सीख नन्हा दिया देता है।
दीवाली को कुम्हारों के गर्व,प्रतिभा और प्रतिष्ठा का पर्व भी कह सकते हैं।कुम्हारों की मिट्टी शिल्प कला का शानदार प्रदर्शन दिवाली की रात दीपमालिका बने दीये प्रदर्शित करते हैं। दीये बनाने की कारीगरी में दक्ष कुम्हारों का यह पुश्तैनी धंधा है। मिट्टी के दिए,सुराही,मटके, खिलौने,गमले बनाने के अलावा विभिन्न देवी-देवताओं की मूर्तियां बनाकर बाजार में बेचना ही उनके जीविकोपार्जन का प्रमुख आधार है।
सुखी मिट्टी को बारीक कूट- पीटकर उसे पानी में भिगोना,गुंथना और फिर उससे कोई भी वस्तु बना देना कुम्हारों के लिए खेल की तरह होता है।यद्यपि बदलते वक्त के साथ कुम्हार समुदाय की जिंदगी में भी भारी उलटफेर हुए हैं।बदलाव की बयार ने इनकी जिंदगी से मिट्टी शिल्प कला के रिश्ता को धीरे धीरे तोड़ना भी आरंभ कर दिया है। दरअसल अन्य सामग्रियों की तरह कुम्हारों के व्यवसाय में प्रयुक्त होने वाली सामग्रियों के दाम आसमान को छू रहे हैं। कोयला,भूसा,माटी, पानी की महगांई के साथ साथ आधुनिक बाजार के बने सस्ते सामानों ने इनके व्यवसाय को बुरी तरह से प्रभावित किया है।
पसीना बहाते,रात दिन मेहनत करके बनाए समानों की लागत को ग्राहकों से निकाल पाना इनके लिए बड़ा सिरदर्द बनता जा रहा है,फलस्वरूप अब कुम्हार समुदाय के बहुत से परिवारों ने माटी से नाता तोड़कर अन्य व्यवसाय से नाता जोड़ लिया है।कुम्हार समुदाय का मिट्टी के मोह से परे जाना एक गंभीर चिंता का विषय है। मिट्टी शिल्प कला से दूर होना पर्व,परंपरा,संस्कृति सहित पुश्तैनी धंधे को विलुप्त करने की राह पर ढकेलने जैसा घातक कदम है। साथ ही जड़ से जुड़ने के बजाय टूटने का भयावह संकेत है।
मिट्टी का दिया मनुष्य को माटी और उसकी
सोंधी सुगंध से जोड़ कर रखता है। जानबूझकर इससे अनजान बना इंसान आधुनिकता की आड़ में पुराने रीति-रिवाजों से दूर होता चला जा रहा है। गांव शहर में तब्दील हो रहे हैं। पवित्र मन का मालिक ग्रामीण भी अब स्वयं को शहरी चकाचौंध तड़क भड़क रंग में रंगकर झूठी शान की चादर ओढ़ने में गर्व का अनुभव कर रहा है।
ऐसे संक्रमण काल में मिट्टी का दिया और बिजली चलित झालर के बीच हो रहे संवाद की याद सहज हो आती है,जो कि इस तरह है - दिवाली की रात मिट्टी के दिये और झालर में तू तू मैं मैं की बहस चल रही थी।झालर ने कहा- सुन रे दिया, नए जमाने में तेरी पूछ परख लगातार कम हो रही है। तेरा ठिकाना केवल गांव गरीब की झोपड़ी तक सिमट कर रह गया है। मेरी जगह महलों और गगनछूती इमारतों के बीच में है।
यह सुनकर हल्की मुस्कान के साथ दिया ने कहा -हां वो तो ठीक है, पर पूजा की थाली में तुम्हें नहीं मुझे ही जगह मिलती है। झालर भाई ज्यादा घमंड मत करो। घमंडी- अहंकारी का सिर नीचे और पराजय सुनिश्चित है। हमारे विद्वानों का कहना है कि ‘अंहकार’में तीन गए ‘धन,वैभव और वंश,न मानो तो देख लो कौरव,रावण और कंस’।
दिया की ऐसी बातों का मनन करते हुए यह भी नहीं भूलना चाहिए कि मिट्टी का एक दिया आंधी तूफान से जूझते हुए भी अपने कर्तव्य से विमुख नहीं होता। घोर अंधकार को चीरते हुए वह बताता है - मानव निर्मित माटी का दिया सारी रात अंधेरे से लड़ता है। हे मानव, तू तो ईश्वर का बनाया हुआ है तू किस बात से डरता है।