हनुमान जन्मोत्सव 12 अप्रैल
" हनुमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह परनाम ।
राम काज कीन्हें बिनु मोहि कहां विश्राम ।।"
श्री रामचरित मानस के सुंदर कांड में गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा यह पंक्तियां यूं ही नहीं रच दी गईं हैं । इन पंक्तियों का सार पूरी रामायण में स्पष्ट समझा जा सकता है । भगवान श्री राम से वानर राज सुग्रीव की मित्रता का प्रसंग हो या फिर सीता माता की खोज की योजना , प्रभु श्री राम के अनुज को शक्तिबाण लगने के बाद संजीवनी बूटी लाकर उनके प्राणों की रक्षा का संकल्प , दशानन के भ्राता विभीषण के हृदय में प्रभु श्री राम के प्रति आस्था का दीप प्रज्ज्वलित करने तक इन पंक्तियों का अर्थ भलीभांति समझ में आता है । जब तक प्रभु श्री राम के द्वारा सौंपा गया कार्य सिद्ध नहीं हो जाता , उनके अनन्य भक्त हनुमान जी कहते हैं , उन्हें विश्राम नहीं करना है ! हनुमान जी के उक्त संकल्प के अनेक उदाहरण रामचरित मानस और रामायण में उल्लेखित हैं । इस संदर्भ में सबसे सटीक प्रमाण सुंदर कांड में ही हमारे समक्ष आता है । लंका की ओर जाते समय हनुमान जी को मैनाक पर्वत ने कुछ समय के लिए अपने ऊपर विश्राम करने का निमंत्रण दिया । अपने प्रभु की भक्ति और कर्मनिष्ठा से ओत - प्रोत हनुमान जी ने मैनाक पर्वत को अपने हाथों से स्पर्श कर प्रणाम किया और बड़े ही विनम्र भाव के साथ कहा :- " अपने प्रभु का काम संपन्न किए बिना मुझे विश्राम नहीं करना है ।"
हनुमान जी इस कलियुग के अकेले ऐसे चिरंजीव प्रभु श्री राम के सेवक हैं , जो आज भी उनके कार्यों को संपन्न कर रहे हैं । हनुमान जी के मस्तिष्क में कूट - कूट कर भरी हुई प्रबंध क्षमता यह बताती है कि उनसे बड़ा " मैनेजमेंट गुरु " कोई और नहीं ! हनुमान जी की प्रबंधन क्षमता का सबसे बाद प्रसंग उस वक्त सामने आता है , जब वे माता सीता की खोज में लंका प्रवेश करते हैं । वे इस विचार में खोए होते हैं कि इतनी बड़ी स्वर्ण नगरी में माता का ठिकाना कैसे और किससे पता करें ? उनके विचारों को पूर्णता मिली जब उन्होंने विभीषण के घर के द्वार पर तुलसी का पौधा , स्वस्तिक और धनुष - बाण के चिन्ह देखे । उनकी तीक्ष्ण बुद्धि से उन्होंने जान लिया कि असुरों की इस स्वर्ण नगरी में कोई तो सज्जन निवास कर रहा है ! उन्होंने विभीषण से दोस्ती की और अपनी प्रबंधन क्षमता का परिचय देते हुए प्रभु श्री राम के गुणों से विभीषण को अवगत कराया ! उन्होंने विभीषण को सीधे - सीधे प्रभु श्री राम के खेमे में शामिल होने का आमंत्रण नहीं दिया । हनुमान जी ने विभीषण के अंतर्मन में प्रभु श्री राम के प्रति उत्सुकता का बीज बो दिया ! जब लंकापति रावण ने भरी सभा में विभीषण का अपमान किया तब विभीषण को हनुमान जी और उनकी कही बातें याद आई और वह सीधे प्रभु श्री राम की शरण में पहुंच गया ! यह बजरंगबली की प्रबंधन क्षमता का ही परिणाम था कि उन्होंने यह समझ लिया था कि लंका पर जीत के लिए किसी ऐसे व्यक्ति की प्रबल जरूरत होगी जो लंका के हर कोने से , वहां रहने वाले लोगों से भलीभांति परिचित हो ! उन्हें विभीषण में वह व्यक्ति नजर आया ।
हनुमान जी का अवतार ही प्रभु श्री राम की सहायता के लिए हुआ था । स्कंद पुराण में उल्लेख मिलता है कि भगवान भोलेनाथ के ग्यारहवें रुद्रावतार द्वारा ही श्री विष्णु के राम - अवतार की सहायता की जाएगी । यही कारण था कि भगवान शिव - शंकर ने श्री विष्णु से दास्य ( दास ) रूप में अवतार का वरदान प्राप्त किया । भगवान शंकर के समक्ष बड़ा धर्म संकट था कि जिस रावण के वध हेतु वे श्री राम की सहायता करना चाहते हैं , वह उनका परम भक्त भी है ! इसी रावण ने अपने दस शीश को अर्पित कर भगवान शंकर के दस रुद्रों को संतुष्ट कर रखा था । आखिरकार ग्यारहवें रुद्र के रूप में भगवान भोलेनाथ ने अपने अंशावतार को हनुमान रूप में प्रभु श्री राम की सहायता के लिए अवतरित किया । इतना ही नहीं स्वर्ग के सारे देवताओं ने ग्यारहवें रुद्र के रूप में जन्मे हनुमान जी को अपार शक्तियां प्रदान की । विद्या - बुद्धि से लेकर बल - बुद्धि तक उनकी चतुरता का कोई सानी नहीं था । सर्व - शक्तिशाली होकर हनुमान जी ने अपने आराध्य के प्रति समर्पण का जो भाव अपने अंदर बनाए रखा, उसी के चलते वे एक कुशल प्रबंधक के रूप में स्थापित हुए । हनुमान जी अतुलित बलशाली होते हुए भी भक्ति की अनुपम मिसाल बने रहे ! उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर मर्यादा पुरुषोत्तम ने उन्हें वरदान दिया कि मुझसे भी ज्यादा तुम्हारे मंदिर होंगे और कलियुग में लोग अपने संकटों से मुक्ति पाने के लिए तुम्हारी ही उपासना करेंगे !
हनुमान जी ऐसे भक्त और सेवक सिद्ध हुए हैं जिन्होंने बड़े - बड़े काम करने के बाद भी अपनी शक्ति पर अंहकार नहीं किया ! उन्होंने सारे राम काज का श्रेय भी अपने प्रभु श्री राम को ही दिया । हमने सुंदर कांड में देखा है कि रावण की लंका दहन करने के बाद जब वे अपने आराध्य के पास पहुंचे तब प्रभु श्री राम द्वारा उनकी शक्ति और काम की प्रशंसा को भी उन्होंने अपने प्रभु की कृपा ही करार दिया । जब प्रभु श्री राम ने पूछा कि इतने विशाल समुद्र को उन्होंने कैसे पार किया ? कैसे इतनी बड़ी लंका को अग्नि के हवाले किया ? हनुमान जी ने बड़ी ही विनम्रता के साथ कहा यह सब आपकी कृपा का ही फल है । " प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहि..." अर्थात ये सब प्रताप तो आपकी मुद्रिका का ही था जिसे मुंह में रखकर ही मैने सौ योजन समुद्र लांघा ! प्रभु श्री राम ने तब कहा मुद्रिका जब तुमने जनक नंदनी को सौंप दिया तब वापसी में कैसे सागर लांघा ? हनुमान जी की प्रबंधन क्षमता यहां भी सामने आई और उन्होंने बड़ी ही सहजता के साथ कहा - प्रभु लौटते समय मां जानकी का चूड़ामणि मेरे पास था और मैं इस पार आ सका । अपने आराध्य के प्रति श्रद्धा और भक्ति का ऐसा दृश्य अन्यत्र दुर्लभ है । रामचरित मानस के सुंदर कांड में ही आई चौपाई भी इस बात को सिद्ध करती है कि महाबली हनुमान ने अपने द्वारा किए गए हर कार्य को प्रभु श्री राम की कृपा का आधार सिद्ध कर दिखाया । उन्होंने ऐसे ही प्रश्न पर प्रभु श्री राम के समक्ष कहा -
" ता कहूं प्रभु कछु अगम नहीं , जा पर तुम अनुकूल ।
तव प्रभाव बड़वानलही, जारि सकई
खलु तूल ।।"
अर्थात हे ! प्रभु इस संसार में उस व्यक्ति के लिए कुछ भी असंभव नहीं जिस पर आपकी कृपा हो । एक रूई का रेशा भी समुद्र की आग को जला सकता है !